अरशद खान: नेपाल की राजनीति में भूचाल आ गया है. प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली और राष्ट्रपति राम चंद्र पौडेल ने इस्तीफा दे दिया है, जबकि युवा प्रदर्शनकारियों ने संसद भवन, सुप्रीम कोर्ट और सत्ताधारी नेपाली कांग्रेस के मुख्यालय को आग के हवाले कर दिया. यह तख्तापलट जैसी स्थिति सोशल मीडिया प्रतिबंध और भ्रष्टाचार के खिलाफ जनाक्रोश से उपजी है. कम से कम 22 लोगों की मौत हो चुकी है, और देश अराजकता के कगार पर खड़ा है.
पिछले सप्ताह सरकार ने फेसबुक, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम, यूट्यूब समेत 26 सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर प्रतिबंध लगा दिया, क्योंकि वे संचार मंत्रालय में पंजीकरण की समय सीमा नहीं मान रहे थे. युवा पीढ़ी के लिए ये प्लेटफॉर्म न केवल मनोरंजन, बल्कि नौकरी के अवसर, समाचार और संगठन का माध्यम हैं। नेपाल में प्रति व्यक्ति सोशल मीडिया उपयोग दक्षिण एशिया में सबसे ऊंचा है, इसलिए यह प्रतिबंध सामूहिक सजा जैसा लगा. प्रदर्शनकारी इसे सेंसरशिप और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला मानते हैं.
लेकिन असली आग भ्रष्टाचार और आर्थिक असमानता ने लगाई. नेपाल दुनिया के सबसे गरीब देशों में शुमार है, जहां औसत आय मात्र 1,400 डॉलर सालाना है. राजनीतिक अभिजात वर्ग के बच्चे-रिश्तेदार सोशल मीडिया पर ऐशोआराम की जिंदगी दिखाते हैं, जबकि युवा बेरोजगारी से जूझ रहे हैं। लाखों युवा मलेशिया, दक्षिण कोरिया और मध्य पूर्व में मजदूरी के लिए पलायन कर चुके हैं. भ्रष्टाचार के आरोपों से जनता का विश्वास टूट चुका है. ओली सरकार पर तानाशाही और भाई-भतीजावाद के इल्जाम लगे, जो 2024 के चुनावी वादों—स्थिरता और रोजगार—की विफलता से और गहरा गए.
प्रदर्शनकारियों ने सिंग दुरबार पैलेस और हिल्टन होटल पर कब्जा कर लिया. पुलिस की गोलीबारी से हिंसा भड़की, लेकिन युवा निर्भीक हैं. पूर्व राजा ज्ञानेंद्र को प्रतिरोध का प्रतीक बनाने की मांग भी उठ रही है. अब सवाल है—क्या नई राजनीति का जन्म होगा? नेपाल का इतिहास अस्थिरता से भरा है—1960 और 2005 के तख्तापलट से सबक लेते हुए, युवा एक नई व्यवस्था चाहते हैं. अंतरराष्ट्रीय समुदाय चिंतित है, जबकि सेना व्यवस्था बहाल करने की कोशिश में लगी है. यह विद्रोह न केवल सत्ता परिवर्तन, बल्कि गरिमापूर्ण जीवन की मांग है.